वो मुझसे रोज़ कहती थी मुझे तुम चाँद ला कर दो,
उसे एक आईना दे कर अकेला छोड़ आया हूँ।
इस जहां में तेरा हुस्न मेरी जां सलामत रहे,
सदियों तक इस जमीं पे तेरी कयामत रहे।
होश-ए-हवास पे काबू तो कर लिया मैंने,
उन्हें देख के फिर होश खो गए तो क्या होगा।
हैं होंठ उसके किताबों में लिखी तहरीरों जैसे,
ऊँगली रखो तो आगे पढ़ने को जी करता है।
उफ्फ ये नज़ाकत ये शोखियाँ ये तकल्लुफ़,
कहीं तू उर्दू का कोई हसीन लफ्ज़ तो नहीं।
ये आईने क्या दे सकेंगे तुम्हें
तुम्हारी शख्सियत की खबर,
कभी हमारी आँखो से आकर पूछो
कितने लाजवाब हो तुम।
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